मंच पर

      *मंच पर*

मैं खड़ा था मंच पर,

थी थोड़ी झीझक,था थोड़ा डर,

था मन में उत्साह भरा,

अंदर बहती ज्ञान गंगा

कहे अब निकलुं अब निकलुं,

सोच रहा था-

अपनी मीठी बातों से मार लुंगा बाज़ी।

पर हाय! रुठ गया ज़माना

देवता भी न थे राजी,

समझ गया मैं कि

चाहा इन्द्रासन पर मिला निंदासन है ।

अचानक कोंधा विचार मन में,

लगा ये तो मुझ पर लांछन हैं,

आज उसी को धोने आया हूँ।

सुनो अब अखण्ड घोषणा मेरी,

सुनने में अब ना करो देरी-

" अब ना कोई व्यभिचार होगा,

मन में बस एक ही विचार होगा,

भारत का बच्चा-बच्चा बोलेगा,

कहेगा कोई ऐसी-वैसी बात नहीं

सीधा अपना अन्तर्मन खोलेगा।"

तब तक मुझे भी ना होगा आराम

आओ मिलकर शुरू करें काम

बोलो जय सीयाराम।




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